गुरु 

 

    हमारे युग में सफलता और उससे मिलने वाली भौतिक तुष्टि का ही मूल्य है । फिर भी असन्तुष्ट लोगों की हमेशा बढ़ती हुई संख्या जीवन का हेतु जानना चाहती है । और, दूसरी ओर, ऐसे सन्त हैं जो जानते हैं और पीड़ित मानवजाति की सहायता करने के लिए यत्नशील हैं और ज्ञान के प्रकाश को फैलाना चाहते हैं । जब ये दोनों-जाननेवाला और जिज्ञासु-मिलते हैं तो जगत् में एक नयी आशा उत्पन्न होती है और फैले हुए अन्धकार में थोड़े-से प्रकाश का प्रवेश होता है । हेमां

 

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    पाश्चात्य मानस को हमेशा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण करना कठिन लगता है तथा गुरु के प्रति बिना ननुनच के पूर्ण समर्पण के बिना तुम्हारे लिए उनकी सहायता पंगु हो जाती है । इसीलिए मैं प्राय: पाश्चात्य लोगों को यह सलाह देती हूं कि वे अपने अन्दर पथ-प्रदर्शन और भागवत उपस्थिति को खोजें । यह सच है कि इस पद्धति में बहुधा अनिश्चितता और आत्म-वंचना का, अहंकार की किसी आवाज को भगवान् का पथ-प्रदर्शन मान लेने का भय रहता है ।

 

    दोनों हालतों में सम्पूर्ण सचाई और शुद्ध अमिश्रित नम्रता ही तुम्हारी रक्षा कर सकती है । मेरे आशीर्वाद सहित ।

२१ जनवरी, १९५५

 

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    अगर तुम्हारे अन्दर श्रद्धा और विश्वास है, तो तुम गुरु के मानव रूप की पूजा नहीं करते बल्कि उन परम प्रभु को पूजते हो जो उनके द्वारा प्रकट होते हैं ।

 

     परेशान मत होओ और जिस रास्ते से तुम्हें सहायता मिले उससे अपने-आपको पूरी तरह परम प्रभु को दे दो ।

 

     प्रेम और आशीर्वाद सहित ।

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   मुझे 'क' की मान्यताएं बिलकुल स्वीकार नहीं हैं । मुझे लगता है कि यह वही पुराना मानव 'पशु' है जो अपनी कामनाओं को मानसिक रूप देकर सन्तुष्ट करने की कोशिश में है ।

 

   सामान्यत: जब कोई आदमी अपने किसी विशेष कार्य के आधार पर यौगिक सिद्धान्त गढ़ने लगता है तो तुम्हें हमेशा सतर्क हो जाना चाहिये ।

 

   सभी काम यौगिक भाव से किया जा सकता है ओर किया जाना चाहिये परन्तु 'आहुति' भगवान् के प्रति होनी चाहिये, किसी मनुष्य के प्रति नहीं ।

२३ जून, १९६०

 

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    हर एक से उसकी समझ की योग्यता के अनुसार बातें कही जाती हैं ।

 

    हो सकता है कि एक को दिया गया ज्ञान दूसरे के लिए उपयोगी या अच्छा न हो । यही कारण है कि गुरु की व्यक्तिगत शिक्षा औरों के आगे प्रकट नहीं करनी चाहिये ।

 

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    शिष्य गुरु को देखकर रूपों का मूल्यांकन करते हैं, और लोग रूपों को देखकर गुरु का मूल्य आंकते हैं ।

 

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    भारतवासी मानते हैं (या उन्हें इस बात का अनुभव है) कि भगवान् मनुष्यों में निवास करते हैं । यूरोपीय इस पर विश्वास नहीं करते । उनके लिए भगवान् कहीं ऊपर हैं । उन्होंने केवल ईसामसीह में जन्म लिया है । इसलिए वे किसी मानव व्यक्ति के आगे नहीं झुकते । लेकिन अगर कोई-निश्चय ही श्रद्धा के साथ-किसी ऐसे व्यक्ति के आगे झुकता है जिसने भागवत चेतना को मूर्त रूप दिया है, तो वह व्यक्ति, अपनी चेतना या अनुभूति औरों तक ज्यादा आसानी से संचारित कर सकता है ।

मार्च १९७३

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